Sunday, September 30, 2012

सोच

वोह बैठे थोड़े शांत थे,
शायद समय की गहराई में खोये हुए थे,
कुछ सोच रहे थे न जाने क्या ,
या फिर कुछ ढूंढ़ रहे थे ,
चमकते हुए टिमटिमाते हुए ,
तारो के बीचो बिच,
पूर्णिमा की रात में ,
पर फिर वो मुस्कु रा दिए ,
शायद कुछ एहसास हुआ होगा,
उठ खड़ा हो कर वो,
आगे चल दिए , गुनगुनाते हुए लफ्जों को ,
चमकते हुए टिमटिमाते हुए ,
तारो के बीचो बिच,

2 comments:

  1. nice.. your posts are quite different..it shows the level of your thinking..a great writer you are.. :)

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  2. thank you from my heart.... your comments brought a very big smile on my face :) :)

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